जिज्ञासु परिंदा
जिज्ञासु परिंदा
खुले गगन में एक परिंदा,उड़ता जाए अकेला।
ढूंढ रहा है मंज़िल अपनी,पीछे छोड़ झमेला।।
उसे आस, विश्वास उसे,निश्चित मंज़िल वह पाएगा,
नहीं थकेगा,नहीं थमेगा,खाली हाथ न आएगा।
रोक सकेगा उसे न अब यह,माया-बंधन-खेला।।
उड़ता जाए अकेला।।
प्रबल शक्ति इच्छा की हृदय में,जब-जब रहती है,
ओज और उत्साह की सरिता,जब मन में बहती है।
मिलता लक्ष्य-मिलन-सिंधु का,लहरों को अलबेला।।
उड़ता जाए अकेला।।
रीति-रिवाज़-धर्म-मज़हब का,चक्कर छोड़े पीछे,
निष्ठा-लगन के जल से अपनी,भाव की बगिया सींचे।
पवन-वेग सँग लक्ष्य-विंदु तक,जाए बिना ढकेला।।
उड़ता जाए अकेला।।
सदा साधना-रत-साधक,जब रहता है बिन चिंता,
निश्चित हासिल कर लेता है,निधि-अमूल्य मुक्ता।
नहीं डिगा सकता उसको है,तूफ़ानों का मेला।।
उड़ता जाए अकेला।।
होता नहीं अमंगल उसका,मंगल ही मंगल है,
सिद्ध-हस्त योद्धा वह होता,जीवन तो दंगल है।
तोड़ न सकता मंसूबों को,बाधाओं का रेला।।
उड़ता जाए अकेला।।
संघर्ष-यत्न जीवन के,हैं दोनों मीत पुराने,
इच्छा-शक्ति जोड़ती इनको,माने जगत न माने।
लघु खग-साहस ही दर्शाता,लक्ष्य-प्राप्ति-सुख-बेला।।
खुले गगन में एक परिंदा, उड़ता जाए अकेला।।
©डॉ. हरि नाथ मिश्र
9919446372
Mohammed urooj khan
06-Nov-2023 12:53 PM
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